अमिताभ पाण्डेय
विकास की अंधी दौड ने दुनियाभर में मानवता के समक्ष अस्तित्व का संकट खडा कर दिया है। कथित विकास की रफतार जितनी तेज हो रही हेै, मानवता के सामने अस्तित्व के खतरे उतने ज्यादा बढते जा रहे हैं।

विकास के नाम पर पूंजीपतियों, समाज के प्रभावषाली लोगों के हितों का पोषण करने वाली व्यवस्था ने जंगल, जगंल में रहने वालों को सर्वाधिक नुकसान पहॅुचाया है। आज हाल यह है कि जगंल और जगंल में रहने वाले आदिवासी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। आदिम जाति , आदिवासी समाज के रीति-रिवाज, खान-पान, संस्कृति, परम्पराओं का बलिदान विकास के नाम पर हो गया । यह सिलसिला अब भी चल रहा है। ऐसा केवल किसी एक देष अथवा प्रदेष में नहीं हो  रहा बल्कि दुनियाभर में रहने वाले आदिम जाति के लोग खुद को बचाये रखने के लिए तरह तरह से संघर्ष कर रहे हैंै। आदिवासी समुदाय हमारे समाज का वह महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसको जनकल्याण, विकास की नितीयां बनाने वालों ने आकर्षक योजनाओं,  लुभावने वादों के साथ लगातार छला है। जबसे षासन ने इस समाज की चिंता करना षुरू किया तभी से इसकी खुषहाली को बुरी नजर लग गई। जगंल में मंगल करने वाले आदिवासी के हिस्से में अब न जंगल बचा है और न ही आनंद -मंगल ।

सरकारी नियम-कानूनों की षक्ल में बाजार की ताकतें जगंल में लगातार अदंर और अंदर तक घुसती चली गई । इसका बुरा परिणाम यह हुआ कि जगंल में रहने वाले आदिवासियों को जगंल से बाहर कर दिया गया। जानवरों का भी जिंदा रहना मुष्किल हो गया। ष्षासन के समर्थन से जगंल में प्राकृतिक संसाधनों की लूट का जो खेल षुरू हुआ उसने प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही बीमारियों, भुखमरी, कुपोषण, आजीविका के संकट, जैसी अनेक समस्याओं को जन्म दिया। इन समस्याओं के समाधान के नाम पर ष्षासन तंत्र में बैठे योजनाकारों ने जो योजनाएं बनाई वे बस उनके लिए ही लाभ का धंधा साबित हुई। अच्छे दिन केवल योजना बनाने वालों और उसके क्रियान्वयन में सहभागी रहने वालों के ही आये। सुनियोजित भ्रष्टाचार का माध्यम बनी नई नई योजनाओं के माध्यम से आदिम समुदाय को बार बार ठगा गया। ष्षायद यही कारण है कि जो समुदाय प्रकृति के संरक्षण में सदैव स्वस्थ-मस्त रहता था वह आज पोषण के संकट से जूझ रहा हेै। जगंल पर आधारित उसकी खाने पीने की व्यवस्था खत्म हो गई हेै। कंद मूल फल खाने वाले आदिवासी समुदाय को रासायनिक पदार्थो से युक्त वह खाघ सामग्री भी खाना पड रही है जो जंगल आधारित जीवनषैली के अनूकूल नहीं है। सरकार ने आदिवासियों को उनके परम्परागत खाघ पदार्थो से दूर कर उन्हें जो राषन का अनाज उपलब्ध करवाया है वह न तो गुणवत्ता युक्त है और न ही प्र्याप्त। यही कारण है कि आदिवासी समुदाय के लोगों की पोषण सुरक्षा खत्म हो गई है। उनकी परम्परागत खाघ सुरक्षा का ताना बाना टूट गया है। वे जी तोड मेहनत के बाद भी षरीर के लिए जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति नहीं कर पा रहे । आदिवासी समुदाय के पुरूष, महिलाएं और बच्चे सभी किसी न किसी बीमारी के षिकार हैं। आदिवासी समुदाय में खाघ और पोषण सुरक्षा के लिए जो व्यवस्थाएं वर्षो से चली आ रही थीं उनको षासन की कथित कल्याणकारी योजनाओं ने खत्म कर दिया।

आदिवासियों के हक अधिकार के नाम पर षासन और समाज के निती निर्धारकों ने जो योजनाएं बनाई वे भ्रष्टाचार में घिरकर रह गई। उनका लाभ लक्षित वर्ग को नहीं मिल सका। आदिम समुदाय का विकास करने  के नाम पर राजनीति, प्रषासन, पूंजीपतियों का गठजोड साल दर साल बडे बजट की योजनाएं बना रहा है जिससे केवल उनकी ही स्वार्थपूर्ति अधिक हो रही है।

आदिवासी समुदाय के नाम पर बनने वाली बडे बजट की योजनाएं यदि अपने लक्ष्य को सफलता पूर्वक हासिल कर लेती तो पोषण की सुरक्षा और कुपोषण , षिषु मृत्यु दर, आवास एंव आजीवका के संकट जैसे ज्वलंत विषयों पर चर्चा , चिंतन, षोध, अध्ययन से बचा जा सकता था।
यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आदिवासी समुदाय के लिए जंगल ही पूरा जीवन था जहां वह जन्म लेता और वहीं उसका पूरा जीवन बीत जाता। जगंल में रहकर प्रकृति के सानिध्य में उसने कभी किसी प्रकार के अभाव, असुरक्षा को महसूस नहीं किया।

जबसे सरकार जगंल की, आदिवासी की चिंता करने लगी तभी से जगंल और उस पर  आश्रित आदिवासी समुदाय अपना अस्तित्व खोते जा रहे हेंै। षासन के संरक्षण में प्राकृतिक संसाधनों को लूट लेने की मानसिकता ने केवल जंगल ही नहीं बल्कि उससे जुडी पूरी आदिवासी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज,खान-पान, भाषा, वेषभूषा आदि को भी भारी नुकसान पहॅुचाया है। जगंल, जगंल के प्राणी धीरे - धीरे डाईगं रूम में लगी फोटो में सिमटते जा रहे हैं। इसी प्रकार आदिवासी संस्कृति, सभ्यता संग्रहालयों में सहेजकर रखने लायक बना दी गई है। आदिवासियों का जीवन , जीवनषैली जानने के लिए अब हमें जगंल नहीं संग्रहालयों की ओर जाना होगा जहां उनके स्मृतिचिन्ह सुरक्षित रखे गये हैं। इस संबंध में किसी अज्ञात कवि ने ठीक ही कहा है:
          जमीन, ख्वाब, जिदंगी,यकीन सबको बांटकर
          वो चाहते हैं बेबसी में आदमी झुकाए सर
          वो चाहते हैं जिदंगी हो रोषनी से बेखबर

                                   लेखक स्वतंत्र पत्रकार है
   

 

Source : अमिताभ पाण्डेय